"ग़ज़ल"
जिस की आब-ओ-ताब जाती रहे जिस में बाक़ी कोई जिला न हो!
कहीं मायूस फ़लक से टूट कर सितारा कोई गिरा न हो!!
वो रिश्ता-ए-दोस्ती भी क्या जहाॅं प्यार न हो गिला न हो!
वो हाथ मिलाना भी किस काम का जब दिल से दिल मिला न हो!!
मैं बोझ बनूॅं उस के पहले ही मेरे मालिक मुझे क़ज़ा मिले!
हर उस मर्ज़ से बचाना मुझे जिस मर्ज़ की कोई दवा न हो!!
इस में शक नहीं कि तू आएगा मगर आ कर क्या बुझाएगा!
ऐ दामन-ए-बाद! मेरी क़ब्र पर जब दीया कोई जला न हो!!
जो फूलों के दिलों में ज़ख़्म हैं वो काॅंटों के दिए नज़राने हैं!
पर उस ग़ुॅंचे को होगा क्या पता जो अभी फूल बन कर खिला न हो!!
'परवेज़' भटक चुका है जो उसे एक राहबर की तलाश है!
भला मिलेगी क्या मंज़िल उसे जिसे रास्ते का पता न हो!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad