## हर घर में जरूरी: अभिषेक मिश्रा का उपन्यास ‘Digital Depression: एक नई महामारी’ और डिजिटल युग की हकीकत जिसे हर घर को समझना जरूरी हैआजकल लोग अपने समय और पैसा मनोरंजन पर आसानी से खर्च कर देते हैं — कभी होटल, कभी मॉल, कभी मूवी। लेकिन कितनी बार हमने सोचा कि एक ऐसा निवेश जो हमारी ज़िंदगी बदल दे, हमारी मानसिक सुरक्षा और संतुलन बनाए, उस पर खर्च किया जाए?
बलिया के युवा लेखक अभिषेक मिश्रा का उपन्यास
“Digital Depression: एक नई महामारी” इसी विषय पर हमारी चेतना को जगाता है। यह किताब केवल कहानी नहीं है, बल्कि आज की डिजिटल आदतों और उनकी खामोश मानसिक चोटों पर गहन अध्ययन है।
आजकल कई घरों में छोटे बच्चों को घर और ऑफिस के काम आसानी से निपटाने के लिए मोबाइल थमा दिया जाता है। यह आसान उपाय हमारी पीढ़ी के लिए कितनी बड़ी मानसिक चुनौती बन सकता है, इसे अक्सर कोई गंभीरता से नहीं देखता। उपन्यास में दिखाया गया है कि कैसे यही डिजिटल आदतें अकेलापन, तनाव और भावनात्मक दूरी पैदा कर रही हैं।
कहानी के पात्र आरव, अनाया और राजवीर दर्शाते हैं कि बाहरी जुड़ाव के बावजूद हमारी पीढ़ी कितनी मानसिक रूप से असुरक्षित और उलझी हुई है। लेखक का कहना है कि
“Digital Depression कोई कल्पना नहीं, बल्कि हमारी नई वास्तविकता है।”यह किताब हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारे समय, संसाधन और पैसे का असली निवेश क्या होना चाहिए। डिजिटल दुनिया में सतत जुड़ाव के खतरे को समझना और संतुलन बनाना अब सिर्फ विकल्प नहीं, बल्कि ज़रूरी जीवन कौशल बन गया है।
यदि आप चाहते हैं कि आप और आपके परिवार की
मानसिक शांति और संतुलन सुरक्षित रहे, तो यह उपन्यास पढ़ना एक जरूरी कदम है। यह न केवल जागरूक करता है, बल्कि सोचने, समझने और जीवन में बदलाव लाने की क्षमता भी देता है।
"डिजिटल युग का दर्द"मोबाइल की रोशनी में खो गया सवेरा,
अपनों के बीच अब मन हुआ अंधेरा।
हज़ारों “फॉलोअर”, पर कोई न पास,
दिल ढूँढे सुकून, पर मिले बस त्रास।
लाइक्स के सिक्के, मुस्कान का भाव,
हर पोस्ट में अब दिखावा का दाव।
सेल्फी की दुनिया में रिश्ते हैं धुँधले,
चेहरों के पीछे सब चेहरे हैं सुन्ने।माँ की पुकार अब नोटिफिकेशन में घुली,
बचपन की हँसी किसी ऐप में चली।
बाप की आँखों में जो सपना था झिलमिल,
अब “रिल” में सिमट गया उसका किलकिल।
आरव के मन में एक शोर था गहरा,
अनाया मुस्कुराई, मगर दिल था ठहरा।
राजवीर के शब्दों में प्रश्न उभरे नए,
क्या सच में यही है “कनेक्टेड” सवेरे?दिमाग़ हुआ तेज़, पर दिल हुआ सुन्न,
भावनाओं के बदले “इमोजी” बने गुन।
तकनीक ने दी उड़ान, पर छीन ली थकान,
मानवता रह गई बस स्क्रीन की जान।
अब वक़्त है सोचने का — कौन है असली “मैं”?
जो दिखता है ऑनलाइन, या वो जो भीतर है कहीं?
उठो! पहचानो इस चुप्पी की बीमारी को,
“डिजिटल डिप्रेशन” से बचाओ अपने आप को।लेखक का संदेश:"Digital Depression सिर्फ कहानी का हिस्सा नहीं है, यह हमारी नई वास्तविकता है। हमें अपने और अपने परिवार के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए सचेत रहना होगा। डिजिटल दुनिया का इस्तेमाल समझदारी से करें, समय और सीमाओं का ध्यान रखें, और असली जीवन के रिश्तों और अनुभवों को प्राथमिकता दें। यही सच में जीवन को संतुलित और खुशहाल बनाएगा।"
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