बन्दराें बहुत दिन हाे गए,
दिखे भी नहीं काैन से जंगल में खाे गए।।
माैषम भी पांच दिन से बिगड रही,
लगातार बारिस बहुत तेज पड रही।।
उपर से ठन्ड कांपते हाेंगे थर्र थर्र,
न तुमारा घर है राेते हाेंगे धर्र धर्र।।
ऐसे में क्या खाते पिते हाे? ,,,
ये मुश्किल घडी में कैसे फिर जिते हाे?
ऐसा पीडा तुमारा दिखा नहीं किसी ने,
सिर्फ करते घृणा तुमें देख कर सभी ने।।
हमारे गावं बस्ती शहर में,
अनाज हाेगा खाने काे हर किसी के घर में।।
हम में से काेई जा कर उन्हें देता,
क्या फरक पडता पुन्य मिल जाता।।
क्या फरक पडता पुन्य मिल जाता.........
----नेत्र प्रसाद गौतम