सुबह-सुबह मुंडेर पर
कांँव-कांँव करते कागा को
मैंने कई बार उड़ाया
मगर वो नहीं माना
फिर मैंने पानी मार कर
बड़बड़ाते हुए उड़ाया
कि नहीं है अब
कोई आने वाला
नहीं है अब मुझे
किसी का इंतज़ार
मगर वो फिर आया और
मुझे निर्निमेष देखते हुए
अपना राग अलापा
तो लगा जैसे
मुझसे कह रह हो कि
तुम्हारी सोच गलत है