उम्र बीत गई तो एक बात समझ आई,
बस आगाज़-ए-मौत थी, उम्र कुछ न थी, ।
वक्त समझकर काटता रहा सारी जिंदगी,
जो मेरी जिंदगी की जड़ थी, और कुछ न थी।
कुछ दोस्त थे, कुछ दुश्मन, जो जिंदगी में मिले,
दो पहियों-सा साथ, जिनके बिना जिंदगी कुछ न थी।
जलाकर फेंक गए मेरी राख पानी में मेरे अपने,
साथ मेरे ज़र और ज़मीन, कुछ न थी।