मैंने बाँध रखा था तुम्हें —
ना किसी डोर से,
ना वचन से,
बस…
अपने ही मन के एक मौन अनुबंध से।
जहाँ तुम जाते,
वहाँ मेरी दृष्टि रहती —
सोचती,
शायद आज तुम बदल जाओ,
शायद आज तुम मुझे न दुखाओ।
पर हर बार —
तुम आए,
मेरी चुप्पी को लांघते हुए,
मेरी कोमलता को चोट बनाते हुए।
और मैं…
हर बार,
अपने भीतर के मंदिर में
तुम्हारे नाम का दीपक जलाती रही।
फिर एक दिन —
मैंने देखा,
दीपक नहीं जलता,
सिर्फ धुआँ उठता है —
उस धुएँ में घुटता है मेरा ‘मैं’।
तब जाना,
दूरी कोई क्रोध नहीं होती,
वह आत्म-सम्मान की एक पुकार है,
एक मौन क्रांति,
जो कहती है —
“अब बस, अब नहीं।”
मैंने एक-एक कर खोला,
वो अदृश्य अनुबंध —
जो मेरे मन ने रच दिए थे,
तुम्हारी हर चोट को प्रेम समझकर।
मैंने तुम्हें मुक्त किया —
अपने ही भीतर से।
न कोई संदेश,
न कोई विदाई।
बस…
अपने भीतर से तुम्हारा नाम मिटा दिया।
अब,
जहाँ तुम हो,
वहाँ मेरी शांति नहीं जाती।
और जहाँ मैं हूँ,
वहाँ तुम लौट नहीं सकते।
मैंने दूरी बनाई,
पर दीवार नहीं खड़ी की।
मैंने मौन चुना,
पर घृणा नहीं बोई।
क्योंकि जो भीतर से मुक्त हो जाता है,
वह बाहर की दूरी से नहीं डरता।
और अब —
मैं मुक्त हूँ,
तुमसे भी,
उस अनुबंध से भी,
जो कभी मैंने ही लिखा था —
अनजाने में, प्रेम समझकर।
– शारदा