मन में शोर, खामोशी जुबां पर..
जाने है अपनी, मंज़िल कहां पर..।
न देर तक, न दूर तक साथ है कोई..
हक–ओ–हुकूक कब तक आशियां पर..।
बदलती फितरत के, यहां लोग हजारों..
ज़मीं को भरोसा, अब नहीं आसमां पर..।
अपनी तो ज़माने को, कुछ ख़बर ही नहीं..
और देता है तफ़सरा, गैरो की दास्तां पर..।
बहारों की मर्ज़ियों पे था, नग़्मा–ए–बुलबुल..
फिर क्यूं गुलों ने रखा, इल्ज़ाम गुलिस्तां पर..।
पवन कुमार "क्षितिज"