कभी-कभी लगता है —
हम बस बातें ही करते हैं,
बदलाव की चर्चा में
बदलने की हिम्मत खो देते हैं।
कहते हैं — “समय बदल गया”,
पर क्या सच में सोच बदली है?
भीतर का अंधेरा अब भी वही,
बस रोशनी की भाषा नई है।
कूड़े पर लिख देते हैं — “कृपया गंदगी न फैलाएँ”,
पर वही कागज़ ज़मीन पर गिरा आते हैं।
बेटी बचाओ का नारा लगाते हैं,
और दहेज की बातों में मुस्कुरा जाते हैं।
मंदिर-मस्जिद में सिर झुकाते हैं,
पर इंसानियत से मुँह मोड़ जाते हैं।
भीख माँगते बच्चे को देखकर आँखें फेर लेते हैं,
और कहते हैं — “समाज सुधर जाएगा।”
क्या वाक़ई हम बदल पाएँगे?
जब तक ज़िम्मेदारी से भागेंगे,
जब तक अपने अंदर झाँकना भूलेंगे,
तब तक कोई नया सवेरा नहीं आएगा।
पर उम्मीद अब भी ज़िंदा है —
हर बच्चा जो झूठ से इनकार करता है,
हर लड़की जो डर के बावजूद आगे बढ़ती है,
हर नौजवान जो अपने बूढ़े माता-पिता का साथ नहीं छोड़ता —
वहीं तो असली बदलाव की शुरुआत है।
बदलाव दूर से नहीं आता,
वो हमारे भीतर से जन्म लेता है।
हर अच्छा काम, हर सच्चा विचार —
वो एक नया समाज गढ़ता है।
तो अब बस एक सवाल खुद से पूछो —
“क्या वाक़ई हम बदल पाएँगे?”
अगर जवाब “हाँ” में है —
तो समझो, दुनिया पहले ही बदल चुकी है।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




