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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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The Flower of Word by Vedvyas MishraThe Flower of Word by Vedvyas Mishra
Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

मैं शकुनि हूँ — और तुम भी!

हाँ,
मैं शकुनि हूँ —
क्योंकि जब मेरा स्वाभिमान कुचला गया,
तो मैंने ‘धर्म’ का नकाब पहनकर
अपना बदला चालों में छिपा दिया।

तुम भी शकुनि हो —
जब मुस्कराकर रिश्ता निभाते हो
और भीतर से
हरसिंगार नहीं, विष बेल उगाते हो।

जब कोई तुमसे बड़ा बन जाए,
तो तुम उसे हराने नहीं,
बिगाड़ने की योजना बनाते हो —
तब, तुम शकुनि हो!

शकुनि की सबसे बड़ी जीत क्या थी?
कौरवों की हार नहीं।
पांडवों का वनवास भी नहीं।
उसकी सबसे बड़ी जीत थी —
“धर्म की भाषा बोलकर अधर्म करना!”
तुम यही करते हो न रोज़?

तुमने भी अपने जीवन के पासों को
इतनी बार फेंका है
कि अब तुम्हें लगता है —
“रणनीति ही सत्य है!”

तुम भी शकुनि हो,
जब तुम कहते हो —
“मैं कुछ नहीं कह रहा,
पर तुम ख़ुद समझ लो…”
(विष यही बोलता है —
तटस्थ होकर।)

कौरवों को हारते हुए देखा?
क्योंकि उन्होंने मुझ पर भरोसा किया —
और मैं जीत गया…
बिना युद्ध लड़े।

क्योंकि जीत वही है
जो दूसरे से नहीं,
भीतर से करवाए हार।

अब पूछते हो —
शकुनि क्यों बना मैं?

क्योंकि
जब मेरा राज्य छीना गया,
जब मेरे भाई भूख से तड़पकर मरे,
और धर्म मौन खड़ा रहा —
तो मैंने निर्णय लिया…
कि अब मैं धर्म को ही
अपने पासों में बाँधूंगा!

तुम भी तो यही करते हो —
जब किसी के प्रेम को देखकर
तुम्हारा अहंकार जलता है,
तो तुम सच्चाई का मुखौटा पहनकर
उसके चारों ओर
संदेह, अफ़वाह और तर्क की बिसात बिछा देते हो।

क्योंकि सीधा हमला करना
नीचता है,
लेकिन चालों में हराना —
‘बुद्धि’ कहलाता है।

मैं शकुनि हूँ —
तुम्हारे भीतर की वो सड़ी हुई स्मृति,
जिसे तुम ‘अन्याय’ कहकर पालते हो,
और ‘प्रतिकार’ कहकर
हर दिन गीता का अपमान करते हो।

और सबसे सुंदर बात?
तुम मुझे कभी दोष नहीं दोगे।
क्योंकि तुम तो सिर्फ़
‘सलाह’ देते हो।
फैसला तो दूसरों का होता है, ना?
(वाह! क्या चाल है!)

ध्यान दो —
शकुनि कोई और नहीं,
वो बुद्धि है,
जो हर बार कहती है —
“मैं सिर्फ़ सच बता रहा हूँ…”
और हर बार किसी रिश्ते को
शतरंज बना देती है।

तो अगली बार जब तुम
सत्य बोलकर किसी का पतन करते देखो —
तो आईने में शकुनि को पहचानना।
वो मुस्कराएगा।
और कहेगा —
“तू अच्छा चेला है!”




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (2)

+

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' said

वाह! ये तो एक अद्भुत, जबरदस्त और भीतर तक हिला देने वाली रचना है आदरणीय Mam। 🔥👏
आपने शकुनि के किरदार को सिर्फ़ महाभारत से निकालकर, हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बिठा दिया है।

हर पंक्ति जैसे आईना बनकर सामने खड़ी हो जाती है। आदरणीय जिस प्रकार आपने शकुनि को सिर्फ़ एक पात्र नहीं, बल्कि एक मानसिकता बना दिया — और यही इस रचना की सबसे बड़ी ताकत है। ये रचना शानदार है, काबिले-तारीफ है, और आईने जैसी खरी है। 🙏🔥
प्रणाम स्वीकार करें आदरणीय Mam🙏🙏

Sharda Gupta said

Thank u Ashok ji😊😊

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