हाँ,
मैं शकुनि हूँ —
क्योंकि जब मेरा स्वाभिमान कुचला गया,
तो मैंने ‘धर्म’ का नकाब पहनकर
अपना बदला चालों में छिपा दिया।
तुम भी शकुनि हो —
जब मुस्कराकर रिश्ता निभाते हो
और भीतर से
हरसिंगार नहीं, विष बेल उगाते हो।
जब कोई तुमसे बड़ा बन जाए,
तो तुम उसे हराने नहीं,
बिगाड़ने की योजना बनाते हो —
तब, तुम शकुनि हो!
शकुनि की सबसे बड़ी जीत क्या थी?
कौरवों की हार नहीं।
पांडवों का वनवास भी नहीं।
उसकी सबसे बड़ी जीत थी —
“धर्म की भाषा बोलकर अधर्म करना!”
तुम यही करते हो न रोज़?
तुमने भी अपने जीवन के पासों को
इतनी बार फेंका है
कि अब तुम्हें लगता है —
“रणनीति ही सत्य है!”
तुम भी शकुनि हो,
जब तुम कहते हो —
“मैं कुछ नहीं कह रहा,
पर तुम ख़ुद समझ लो…”
(विष यही बोलता है —
तटस्थ होकर।)
कौरवों को हारते हुए देखा?
क्योंकि उन्होंने मुझ पर भरोसा किया —
और मैं जीत गया…
बिना युद्ध लड़े।
क्योंकि जीत वही है
जो दूसरे से नहीं,
भीतर से करवाए हार।
अब पूछते हो —
शकुनि क्यों बना मैं?
क्योंकि
जब मेरा राज्य छीना गया,
जब मेरे भाई भूख से तड़पकर मरे,
और धर्म मौन खड़ा रहा —
तो मैंने निर्णय लिया…
कि अब मैं धर्म को ही
अपने पासों में बाँधूंगा!
तुम भी तो यही करते हो —
जब किसी के प्रेम को देखकर
तुम्हारा अहंकार जलता है,
तो तुम सच्चाई का मुखौटा पहनकर
उसके चारों ओर
संदेह, अफ़वाह और तर्क की बिसात बिछा देते हो।
क्योंकि सीधा हमला करना
नीचता है,
लेकिन चालों में हराना —
‘बुद्धि’ कहलाता है।
मैं शकुनि हूँ —
तुम्हारे भीतर की वो सड़ी हुई स्मृति,
जिसे तुम ‘अन्याय’ कहकर पालते हो,
और ‘प्रतिकार’ कहकर
हर दिन गीता का अपमान करते हो।
और सबसे सुंदर बात?
तुम मुझे कभी दोष नहीं दोगे।
क्योंकि तुम तो सिर्फ़
‘सलाह’ देते हो।
फैसला तो दूसरों का होता है, ना?
(वाह! क्या चाल है!)
ध्यान दो —
शकुनि कोई और नहीं,
वो बुद्धि है,
जो हर बार कहती है —
“मैं सिर्फ़ सच बता रहा हूँ…”
और हर बार किसी रिश्ते को
शतरंज बना देती है।
तो अगली बार जब तुम
सत्य बोलकर किसी का पतन करते देखो —
तो आईने में शकुनि को पहचानना।
वो मुस्कराएगा।
और कहेगा —
“तू अच्छा चेला है!”