मेरे बच्चो,
भले ही तुमने मुझे अनदेखा कर दिया,
भुला दिया मेरी सारी शिक्षाओं को,
काँच के खिलौनों के लिए
सोने का सपना बेच दिया,
और मेरी कविताओं को
रद्दी की धूल में छोड़ दिया—
फिर भी मैं तुम्हें नहीं भूलूँगा।
धान की बालियों की गंध के उस पार,
जहाँ मिट्टी पसीने से भीगी है,
वहीं से उठकर
मैं लौटूँगा तुम्हारे पास।
पर उस तरह नहीं,
जैसे तूफ़ान अचानक टूट पड़ता है,
न उस तरह,
जैसे भूख रोटी पर झपटती है।
मैं उतरूँगा—
जैसे बुझी साँसों में
फिर से आँच भर जाती है,
जैसे थकी नदियाँ
समुद्र की गोद में ढल जाती हैं।
तुम्हारे भीतर के मरुस्थल में—
जहाँ विचार धूप से झुलस गए हैं,
वहीं मैं टपकूँगा
ओस की पहली बूँद बनकर,
एक अनजाना बीज लेकर।
मैं आऊँगा—
जैसे अंधेरे में दीप
चुपचाप जल उठता है,
जैसे टूटी वीणा से
अचानक संगीत फूट पड़ता है।
पर मेरी आहट वही सुनेगा
जिसकी आँखें पछतावे में भीगी हैं,
जो थककर
आँसुओं के समंदर में डूबा है।
मैं आऊँगा—
राख की तहों में
जागती चिंगारी बनकर,
जली हुई धरती पर
खिलते फूल की तरह।
मैं आऊँगा—
तुम्हारे मौन में,
तुम्हारी थकान में,
तुम्हारे सपनों की धूल में—
जैसे मृतप्राय जीवन में
अचानक फिर से
धड़कन लौट आती है।
— इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड