छीन कर आबरु एक महिला की,
वो खुलेआम घूमता हैं,
वो गुनाहों का देवता हैं,
पैसों के तख़्त पर बैठा हैं,
पीकर जाम न्यौछावर का,
न्याय उसके कदमों में सरेआम झूमता हैं,
जानकर भी सब आँखे मूँद कर बैठे हैं,
अजी कब तक बचाओगे अपने घर की इज़्ज़त,
वो रोज़ एक नया शिकार ढूँढता हैं।
लेखक- रितेश गोयल 'बेसुध'