वो माफ़ी नहीं थी, जो उसने माँगी थी,
वो तो बस एक तरीका था — फिर से बच निकलने का।
उसके लफ़्ज़ों में अफ़सोस नहीं था, सिर्फ़ आदत थी,
जैसे किसी सज़ा से पहले, नाम की माफ़ी लिखी जाती है।
मैंने सुना, और कुछ भी महसूस नहीं किया,
शायद मैं उस मुकाम पे थी — जहाँ दर्द भी दस्तक नहीं देता।
उसने कहा, ‘गलती हो गई मुझसे’, और मैं हँसी,
क्या वाक़ई? या बस वक़्त नहीं था मेरे टूटने का हिसाब रखने का?
माफ़ी तब मायने रखती है, जब कोई आँखें उठाकर बोले,
वो तो नीचे देख रहा था — जैसे कुछ चुराया हो उसने मुझसे।
कभी-कभी लगता है — उसने माँगी ही इसलिए थी माफ़ी,
ताकि मैं फिर से वही बन जाऊँ — जो पहले थी, जो झुकती थी।
पर मैं अब वहाँ नहीं हूँ — जहाँ माफ़ किया जाता है,
अब मैं बस अपने भीतर हूँ — जहाँ कोई लौट नहीं सकता।
लोग कहते हैं — माफ़ करने से सुकून मिलता है,
उन्हें कौन समझाए — कि मैं अब सुकून नहीं, सबक़ हूँ।
वो माफ़ी नहीं थी, जो उसने माँगी थी,
वो आख़िरी धक्का था — एक औरत को ख़ुद में बंद करने का।