कापीराइट गजल
रात भर ठहरी नहीं नींद आंखों में कहीं
रूठी हुई थी चांदनी चांद से जैसे कहीं
हम भटकते ही रहे नींद आंखों में लिए
तुम कहीं हम को फिर नजर आई नहीं
तेरे कदमों के निशां थे सामने मेरे मगर
हम संग उनके मगर चल नहीं पाए कहीं
रात भर ये चांद तारे मेरे संग चलते रहे
नींद आंखों में मेरी, रात भर आई नहीं
रात भर देखा किए ये राह तेरी याद में
नींद क्यूं आती भला तुम जो आई नहीं
रही ढूंढ़ती आंखें मेरी तुमको बार-बार
दूर तक कहीं मगर तुम नजर आई नहीं
चांद भी छुपता रहा यूं बादलों के बीच
औढ़ कर घूंघट नया ढ़ल रही थी चांदनी
फूलों के लबों पर गिर रही थी औस यूं
जैसे एक मुस्कान थी लबों पर छाई हुई
यादव बताते क्या हमें दास्तां ये रात की
हमें सूरत कहीं तुम्हारी नजर आई नहीं
- लेखराम यादव
( मौलिक रचना )
सर्वाधिकार अधीन है