तराज़ू का मौन
डॉ0 एच सी विपिन कुमार जैन" विख्यात"
पलड़े दो, मौन साधे खड़े,
बीच में टिका न्याय का डंडा।
एक ओर पीड़ा कराहती,
दूजे आशा का बंधा झंडा।
वज़न भावनाओं का कैसा हो,
किस्सों की गठरी कितनी भारी?
अंतर्मन की कसौटी पर,
तुलती सच्चाई हर एक बारी।
रंग न देखे, न ही कुल जाने,
अंधा होकर भी सब पहचानता।
सूक्ष्म धागे से बंधा है यह,
हिल जाए तो फिर कौन मानता?
कभी झुकता है दबावों से,
कभी रिसता है स्वार्थों से तेल।
पर सच्ची निष्ठा जब जागे,
न्याय दिलाता पीड़ित को वेल।
यह पत्थर का सिंहासन नहीं,
यह तो आत्मा का गहरा नाद है।
जब गूंजेगा निष्पक्ष होकर,
मिटेगा हर अन्याय, हर फ़साद है।