ननद थी मैं, पर रानी समझ बैठी,
भाभी आई तो लगा — मेरी जमीं खिसक गई।
वो मुस्कराई, मैंने तौल लिया,
कि ये हँसी कहीं मेरी हँसी से बड़ी तो नहीं?
घर की बेटी थी, पर मुँह में माँ की ज़ुबान थी,
और दिल में — कुछ अनकही सी थकान थी।
मुझे लगा, वो लेने आई है सब —
माँ का दुलार, भाई का ध्यान, मेरी पहचान।
पर कोई नहीं बोला —
“तू दे भी तो सकती है…”
प्रेम, अपनापन, साथ —
जिससे घर रंगमंच नहीं, संगम बन सकता था।
भाभी कोई सौतन नहीं होती,
जो भाई की नज़रों में हिस्सेदार हो।
वो एक मुसाफ़िर है —
जो तुम्हारे घर को अपना घर कहने की हिम्मत कर रही है।
क्यों न मैं उसके पहले दिन की थकान को बाँटती?
क्यों न मैं उसकी चाय में
अपनी मुस्कान का शक्कर घोल देती?
क्यों मैं माँ को उसके खिलाफ़ बतियाती रही?
क्या माँ का स्नेह
मेरे हिस्से से कम हो जाता था?
काश, मैंने उसकी आँखों में डर नहीं, भरोसा ढूँढा होता,
उसके हाथों में झाड़ू नहीं, आत्मविश्वास देखा होता।
काश, मैंने उसकी चुप्पियों में
कोई शिकायत नहीं — सिर्फ़ थकान समझी होती।
रिश्ते, तुलना से नहीं — सहारे से चलते हैं।
हर महिला दुश्मन नहीं होती,
हर मुस्कान छलावा नहीं।
अगर मैं बहन बन जाती —
तो ससुराल, उसका अपना घर बन जाता।
“ननद अगर वाक़ई ‘बहन’ हो जाए,
तो भाभी कभी ‘गैर’ नहीं लगती।”
ननद” का असली रूप — तब सामने आता है,
जब वो बहन की तरह निभाती है,
ना कि अधिकारों की तरह जताती है।
और सबसे जरूरी बात:
एक औरत जब दूसरी औरत का दर्द समझ जाती है,
तभी घर में असली शांति आती है।