वो पूछता था —
“कहाँ थी?”,
जब मैंने बस साँस ली थी अकेले में।
वो टटोलता था —
मेरे शब्दों की तहें,
जैसे हर बात में
छुपा हो कोई षड्यंत्र।
वो देखता था —
मेरी आँखों की नमी को
भी झूठ का पानी मानकर।
वो सुनता नहीं था —
बस खोजता था
“पकड़े जाने लायक कोई सुराग।”
वो शक़ करता था —
मेरे हँसने पर,
मेरे थक जाने पर,
यहाँ तक कि
मेरे चुप हो जाने पर भी।
और मैं…
धीरे-धीरे
उसके शक़ की बीमारी में
एक “इल्ज़ाम-रहित अपराधिनी” बनती चली गई।
मैंने हर बार
अपने सच को
उसकी शंका के सामने गला दिया,
और वो हर बार
अपने डर को
मेरा दोष बनाता गया।
रिश्ते मरते नहीं थे हमारे बीच —
बस हर रोज़
शक़ की एक परत और चढ़ जाती थी
भरोसे की लाश पर।
शक़ —
कोई तूफ़ान नहीं होता
कि सब कुछ पल में उजाड़ दे।
वो तो
एक धीमा ज़हर होता है,
जो रिश्ते की नसों में उतरकर
हर ‘मैं’ को
धीरे-धीरे ख़त्म करता है।
शक़ ने कभी थप्पड़ नहीं मारा,
पर उसकी नज़रों ने
मेरी आत्मा पर
हर दिन कीचड़ उछाला।
मैं बस मुस्कुराई —
और उसने सोचा, कुछ छुपा रही हूँ।
मैं चुप रही —
तो उसे यक़ीन हुआ, मैं दोषी हूँ।
मैं थक गई —
तो उसने कहा, “किसके साथ थी?”
शक़ —
हर उस बात को
झूठ बना देता है
जिसे तुम सबसे ज़्यादा सच के साथ कहते हो।
और सबसे ख़तरनाक बात ये है —
कि शक़ एक दिन
सिर्फ़ बातें नहीं निगलता —
वो इंसान निगल जाता है
अब मैं उसके बिना भी हूँ
और बिना शक़ के भी,
पर मैं वो नहीं हूँ
जो कभी उसके पहले हुआ करती थी।
क्योंकि शक़ से बड़ा
कोई ज़हर नहीं होता —
वो मारता नहीं है,
बस आपको जीते-जी
‘मरने जैसा’ बना देता है।
शक्कीपन प्यार नहीं होता —
वो एक बीमारी होती है,
जो किसी मासूम की आत्मा में
धीरे-धीरे ज़हर घोल देती है।