शीर्षक:जो चाहो यूँ छूमंतर हो जावे
जो चाहो यूँ छूमंतर हो जावे,
अनचाहा दिल से मेल बढ़ावे l
क्यूँ तू ऐसी-वैसी फ़सल उगावे,
जिसमें सब कुछ ही जल जावे l
ऊँची नीची, झूठी ,तिरछी बातें,
सीधे सच्चे लोगों को ना आवे l
तन्हा तन्हा सबकी रातें कहतीं,
कोई ख्वाब खुला मिल जावे l
उधड़े बिखरे सब हैं रिश्ते सारे,
एक ही धागे में सब सिल जावे l
जो दर्द टीसती रहती है सीने में,
उन सबको मरहम मिले जावे l
जो संग चले पर भटके राहों में,
फागुन मास में फिर मिल जावे l
बेरंगी दुनिया में कैसे "विजय" हो,
बस,कुछ ना आवे कुछ ना भावे l
विजय प्रकाश श्रीवास्तव (c)