कहते हैं — समय सब सिखा देता है,
पर हमने तो बस खोना सीखा है।
रिश्तों की मिठास,
अब डिजिटल संदेशों में घुल गई है।
चेहरे मुस्कुराते हैं, पर आँखें थकी हुई हैं,
दिलों में चाहत है, पर ज़ुबानें झूठी हुई हैं।
हर कोई कहता है — “मैं व्यस्त हूँ”,
पर कोई नहीं पूछता — “किसमें?”
हमने घर बनाए, पर अपनापन नहीं,
हमने दुनिया माप ली, पर मन नहीं।
हज़ारों फोटो खींचे,
पर एक भी याद सच्ची नहीं।
कभी किसी पेड़ के नीचे बैठो,
तो वो बताएगा — धूप कैसे सहनी होती है।
कभी किसी मजदूर को देखो,
तो समझो — रोटी कैसे कमानी होती है।
हमने गाड़ियों की रफ़्तार बढ़ा दी,
पर कदमों की दिशा खो दी।
हमने शब्दों की किताबें लिखीं,
पर सन्नाटे पढ़ना भूल गए।
कहते हैं — “समय आगे बढ़ गया”,
पर इंसान पीछे रह गया।
जिसे देखना था आत्मा से,
उसे अब स्क्रीन पर ढूँढते हैं।
कभी सोचो —
अगर एक दिन ये समय ठहर जाए,
तो क्या हम फिर भी मुस्कुरा पाएँगे?
या सिर्फ सन्नाटे में अपने नाम पुकारेंगे?
इंसानियत अब भी ज़िंदा है,
बस उसकी आवाज़ धीमी हो गई है।
जो किसी भूखे को खिलाता है,
वो इस युग का सबसे बड़ा “धनी” है।
चलो, आज कुछ देर के लिए ही सही —
समय की थाली में थोड़ा प्यार परोसें,
थोड़ी करुणा, थोड़ी संवेदना,
थोड़ी मुस्कान किसी और के हिस्से में छोड़ें।
क्योंकि जब इतिहास दोबारा लिखा जाएगा,
तो वो पद, पैसा या पहचान नहीं पूछेगा —
वो बस पूछेगा,
“क्या तुम इंसान बने रहे?”

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




