मैंने
जब खुद को जलते देखा —
कोई आँधी नहीं थी,
कोई अग्नि नहीं…
बस एक धीमी-सी तपिश थी
जो भीतर ही भीतर
सब कुछ राख कर रही थी।
मैंने
अपनी ही हड्डियों से
मौन की आग जलाई,
और उस आग से
एक शब्द भी नहीं निकला।
केवल राख बची —
सफ़ेद, नर्म,
उंगलियों पर लग जाए तो
स्मृति की तरह झरने लगे।
मैंने उसी राख से
तुझे गढ़ा —
तेरे चेहरे की लकीरें,
तेरी मुस्कान की सादगी,
तेरी आँखों की वह बात
जो तूने कभी कही ही नहीं थी…
तेरे होने का हर हिस्सा
मैंने अपनी अधजली साँसों से
रचा।
कभी-कभी सोचता हूँ —
तू था भी
या सिर्फ़ मेरी कल्पना की वह तस्वीर
जो मैंने
अपने अंत से पहले
अपनी राख से बना ली थी?
अब, जब हवाएँ
वो राख भी उड़ाकर ले जा रही हैं —
मैं
तेरी तस्वीर को
साँसों में बसाए फिर रहा हूँ।
क्योंकि
जिसने खुद ही
खुद को जला लिया हो,
वो दोष दे भी तो
किसे?
वो तो बस
तेरी आँखों के उस अंश को पकड़कर
खुद को फिर से
एक ख़्वाब बनाता है।
-इक़बाल सिंह “राशा“
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड