शीर्षक: सच से कतराते हैं क्यूँ..
पत्थर जैसे हो गए क्यूँ,
सच से कतराते हैं क्यूँ l
साये हैं तो सब हैँ साथ,
अपने परखे धूप में क्यूँ l
दरिया के दोनों किनारे हैं,
पर रेत बनी दीवारें क्यूँ l
बातें नहीं सुलझ पातीं हैं,
संबंधों में आए ख़म क्यूँ l
टूटी माला हैं बिखरे मोती,
प्यार,वफा का भरम क्यूँ l
बादल,बरखा और सावन,
ऋतुओं में है अब ग़म क्यूँ l
चिडियों के अपने हैं ग़म,
बच्चों के पर आए हैं क्यूँ l
थामें अपने पतंग की डोर,
गिला "विजय" है ही क्यूँ l
विजय प्रकाश श्रीवास्तव (c)