आम नहीं बन सकते जो, राम कहाँ बन पाएंगे,
बात बात तलवार उठाना, मुरली बजा ना पाएंगे।
प्रेम शब्द जाना ना हो जिसने, भक्ति कहाँ से लाएंगे,
मीरा की तो बात दूर है, खुद स्वयं को जान ना पाएंगे।
त्याग कहाँ अब बाक़ी है, रघुकुल रीति निभा ना पाएंगे,
छोटे स्वार्थों में उलझे हैं, वनवास सह ना पाएंगे।
सीता की मर्यादा तो क्या, अब माँ का मान बचा ना पाएंगे,
लव-कुश जैसे बालक अब, गुरुकुल में ठहर ना पाएंगे।
कृष्ण-चेतना दूर बहुत है, गीता कोई पढ़ता नहीं,
मोह-माया में फँसा हुआ, आत्म-ज्ञान से लेना देना नहीं।
सुदामा से कौन मिले अब, मित्रभाव भी झलकता नहीं,
धन से नापें रिश्ते सारे, प्रेम कहीं अब दिखता नहीं।
कबीर के दोहे अब तो, व्हाट्सऐप स्टेटस बनते हैं,
पर जीवन में उतरें ऐसे, बिरले ही कुछ जन चलते हैं।
नानक जैसा दृढ़ विश्वास, अब मन में ठहरता नहीं,
सच्ची बानी, सेवा, सिमरन — कोई अब करता नहीं।
महावीर का क्षमा-पथ तो, आज मज़ाक बनता है,
गौतम की करुणा को भी, बस ग्रंथों में पढ़ता है।
राह दिखाई जिन ऋषियों ने, उनको ही ठुकराया है,
धरती के इन दीपों को अब, अंधकार भुलाया है।
फिर भी आशा बाकी है, जब अंतर में प्रकाश जगेगा,
राम-कृष्ण ना ही सही, पर इंसान तो कोई बनेगा।
जागो हे मानव! वक़्त यही है, फिर से पथ अपनाने को,
वरन इतिहास माफ़ न करेगा, धर्म को ठुकराने को।
----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'
सर्वाधिकार अधीन है


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
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