हमने देखा है खुशी को गम में ढ़लते हुए
हमने देखा है किसी को गम में जलते हुए
कौन पोंछेगा अब इनकी आंखों
के आंसू
हमने देखा है सभी को तब रंग
बदलते हुए
किसने देखे हैं भला उनके पैरों
के छाले
हमने देखा है उन्हें गर्म राहों पे
चलते हुए
गैर तो गैर थे अपनों से भी बढ़
गई दूरी
हम ने देखा है अभावों में लोग
मरते हुए
छूना भी तब मुनासिब नहीं समझता कोई
छुपा लेते थे चेहरा वो घर से निकलते हुए
आखिरी रस्म अपनों की निभा नहीं पाए
छुप के बैठे थे घरों में मौत से
डरते हुए
दो गज की दूरी यादव तुम भी
बनाए रखना
वर्ना पछताओगे तुम भी ये दम
निकलते हुए
लेखराम यादव
प्रिय पाठको ये रचना कोरोना काल में उस समय लिखी गई थी जब देश और विदेश में करोना ने अपने आतंक से सबको बेहाल कर दिया था और लोग दिल्ली, मुम्बई और विदेश से लोट रहेगे और सङकों प्रभूत प्यास को दरकिनार करते हुए नंगे पाव चल रहे थे। लोग आक्सीजन और दवाओं के अभाव में मरने को मजबूर थे। अपनों का साथ पाने के लिए तरस गए थे। अपने चहरे पर मास्क लगाने और दो गज की दूरी बनाए रखने के लिए मजबूर थे।
सर्वाधिकार अधीन है