मैं चुप रही —
इतने वर्षों तक
जैसे किसी पेड़ की छाल में
दफ़न हो एक पत्ता —
अपने ही हरित होने को तरसता हुआ।
तुमने कहा —
“ये सब तुम्हारा भ्रम है”
और मैं हर बार
अपने अस्तित्व को
ख़ुद से काटकर तुम्हें सौंपती रही।
मैंने माँग लिया था बस इतना —
कि मेरी साँसों को
तुम अपनी सांसों के बराबर समझो,
कि मेरे मौन को
तुम मौन की भाषा में पढ़ सको।
पर तुम्हारे उत्तर में
हर बार एक गूंगी दीवार मिली —
जिस पर मैंने
अपने अधूरे नाम लिखे,
और वे ओस की तरह
हर सुबह मिटा दिए गए।
मुझे मेरा अधिकार कब दोगे?
ये सवाल नहीं —
एक थकी हुई प्रार्थना है,
जो अब प्रार्थना नहीं रही —
एक युद्ध है —
जो मैंने अपनी आत्मा में
चुपचाप लड़ा है —
ताकि तुम जीत सको।
लेकिन अब…
मैं हारना नहीं चाहती,
न तुम्हारे लिए,
न अपने लिए।
अब मैं
अपनी हथेली में
अपने नाम की मिट्टी भरकर
स्वयं की प्रतिमा गढ़ना चाहती हूँ।
अब मैं
तुमसे कुछ नहीं चाहती —
सिवाय उस पल के
जब तुम मेरी आँखों में
अपना डर देख सको —
और कह सको —
“हाँ, ये सब तुम्हारा भी था —
पर मैंने कभी माना ही नहीं…”