कब तक उलझू इन बातो मे ,
सपने गढू मैं इन रातो में ,
कलम से तेरी मेहंदी लगाऊ ,
शब्दो से श्रृंगार सजाऊ ,
चैतन्य से तेरा हो जाऊ
या फिर मै दायित्व निभाउ ,
बिखरी बिखरी सी संस्कृति है ,
युग की धारा फूट पड़ी है ,
मुझसे नव निर्माण की आशा ,
चेतना मेरी तुझपे रुकी है ,
क्या मुँह मै दिखलाऊ ,
कैसे दायित्व निभाउ...
कितनी पीड़ा है संसृति में ,
सबकोइ अपनी वीन बजाये ,
सबल और बलवान हो जाए ,
दुर्बल की वाणी दब जाए ,
प्रेम सेज में सुख की नींद मैं ,
कैसे फिर सो जाऊ ,,
जाति धर्म में भारत बंट रहा ,
ईर्श्या का कोई जहर घोल रहा ,
प्यारी सभ्यता गाली खा रही ,
प्रकृति भी हमसे दूषित हो रही ,
बता मुझे तेरी आँखों में ,
कैसे मैं खो जाऊ...
या फिर दायित्व निभाउ l
शोषित दुर्बल कैसे पीड़ित ,
रात दीना सब उनको छलते ,
अपनी पीड़ा किसे वो कहते ,
गीतों में हम रहते उल्झे ,
कब तक तुझे मै गाउ ,
या फिर दायित्व निभाउ ,
कोमल कलिया टूट बिखर रही,
वासनाओ की बली वो चढ़ रही ,
दूषित गिद्ध नोच के खा रहे ,
सपने उनके साथ जला रहे
कितना तुझे बताऊ,
या फिर दायित्व निभाउ..
काली - काली इन झुल्फो में ,
मीठी- मीठी सी बातो में ,
झील सी गहरी इन आँखों में ,
सरस सुहानी सी स्वाशो मे ,
यदि मैं भी खो जाऊ ,
यारा क्या दायित्वा निभाउ .
समय की अपनी इन मांगों में ,
एकरूपता की माला में ,
दुर्बल शोषित की ज्वाला में ,
साध सुरो को निज लेखनी से ,
अनहद टेर लगाऊ .
मै अपना दायित्वा निभाउ ......