"ग़ज़ल"
जो चला गया मुझे छोड़ कर कोई और नहीं मिरा प्यार था!
जो चढ़ा था सर वो सुरूर था जो उतर गया वो ख़ुमार था!!
न मोहब्बतों का वो फूल था न ही नफ़रतों का वो ख़ार था!
वहीं टूट कर जो बिखर गया गले का तुम्हारे वो हार था!!
अजी प्यार था या पतंग था उस उड़ान में भी तरंग था!
न थे पाॅंव उस के ज़मीन पर वो हवा के रथ पे सवार था!!
तू जो कह रहा ये जबर नहीं तुझे बे-ख़बर ये ख़बर नहीं!
जिसे ठोकरों पे उड़ा दिया वो था दिल जो तुझ पे निसार था!!
जो भुला सका वो भुला दिया जो मिटा सका वो मिटा दिया!
वहीं पे निकाल के रख दिया मिरे दिल में जो भी ग़ुबार था!!
मिरे सामने से गुज़र गए लगा जैसे मैं कोई ग़ैर हूॅं!
मिरा नाम भी कभी जान-ए-मन तिरे आशिक़ों में शुमार था!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद