जब कंधे पर आती है, जिम्मेदारी,
अपने आप आ जाती समझदारी।
मैंने ढंग से पढ़ी किताब-ए-जिंदगी,
कभी समझ नहीं पाया दुनियादारी।
धन-दौलत सब कुछ चला जाए पर,
मरते दम तक साथ रहे ईमानदारी।
खुद से आँख कैसे मिलाते होंगे वो,
जो करते हैं अपने आप से गद्दारी।
हम चारों साथ रहते हैं खामोशी से,
मैं, गम, तनहाई और ये चारदीवारी।
🖊️सुभाष कुमार यादव