थोड़ी सी थकान थी,
थोड़ी सी उदासी भी थी —
किसी से कुछ कहा नहीं,
बस जाकर चाय बना ली।
उबलते पानी की आवाज़
जैसे किसी ने धीरे से पूछा —
“थक गई क्या?”
मैं चुप रही, पर मन ने हाँ कहा।
दूध डाला, पत्ती डाली,
जैसे दिन भर के ख्याल कप में घुल गए।
चीनी थोड़ी ज़्यादा डाली आज —
क्योंकि कोई मीठी बात करने वाला नहीं था।
बैठ गई मैं चुपचाप खिड़की के पास,
हाथ में प्याली, आँखों में बहुत कुछ।
और फिर जैसे —
हर चुस्की में कोई धीरे से बोला,
“मैं हूँ न… सब ठीक हो जाएगा।”
उस कप ने मुझे डाँटा नहीं,
न ताना मारा, न सवाल पूछे —
बस हर बार जब मैंने घूंट लिया,
उसने मेरी थकावट ले ली।
अब आदत सी हो गई है —
जब कोई नहीं होता,
मैं चाय से बात कर लेती हूँ।
कभी वो माँ बन जाती है,
कभी दोस्त, कभी पुराना तकिया —
और कभी सिर्फ़ गर्म भाप,
जिसमें मैं अपना दुख उड़ेल देती हूँ।
कभी लगता है चाय भी थकती होगी,
मेरी बातें सुनते-सुनते —
पर वो हर बार मुस्कुरा कर कहती है,
“तेरे दर्द में ही तो मेरा स्वाद है।”
मैं पूछती हूँ —
“क्यों हर बार मुझे सम्हालती हो?”
वो हँसकर कहती है —
“क्योंकि तू कभी किसी से नहीं कहती,
और मैं… बस सुनने के लिए बनी हूँ।”
कभी मैंने रोते-रोते पी,
तो वो गर्म नहीं, गीली लगी।
कभी उदासी में,
तो हर चुस्की जैसे किसी किताब का आख़िरी पन्ना।
मैं सोचती हूँ —
जब मैं बड़ी हो जाऊँगी,
क्या चाय मेरी सहेली रहेगी?
शायद हाँ…
क्योंकि ज़िंदगी में लोग बदलते हैं,
पर एक कप चाय की ममता नहीं
थोड़ी सी थकान, थोड़ी सी तन्हाई —
चाय ने आज फिर से दोस्ती निभाई।