अब दिल को बहलाना, उतना आसाँ न रहा..
जैसा था कहीं से भी वैसा, अब जहाँ न रहा..।
कुदरत के चटख रंग, अब फीके से पड़ गए..
आंखों में समा जाये, वो नीला आस्माँ न रहा..।
बहुत तंग कूचों से होकर, गुजरने के बाद था..
इंतेज़ार में, आख़िरी मोड़ का वो मकाँ न रहा..।
वो जो समझते थे कि ज़मीं में उन्हीं से हैं रवानगी..
उनका हश्र देखकर हमें तो अब कुछ ग़ुमाँ न रहा..।
बाग़बां को उम्मीद थी, कि इस दफ़ा कुछ नए गुल खिलेंगे..
मगर क्या करें, जो मौसम बहारों का उतना मेहरबाँ न रहा..।
पवन कुमार "क्षितिज"