रात की चुप्पियों में
जब मेरी छाती में कुछ हिलता है—
कोई आर्तनाद,
जो उठता है तेरे ही नाम से —
प्रभु!
इस ज़िंदगी की सूनी राहों पर
तेरे चरणों की धूल तक नहीं।
मैंने अपनी पीठ से लहरें उतारी हैं
तेरे स्पर्श के भ्रम में,
किन्तु हर बार
तेरे संकेत
बनकर बूँदों की तरह झरते रहे,
और मैं—
सूखती नदियों की तरह
तुझमें खोता गया।
तेरे नाम के अक्षर
रेत पर लिखे मैंने,
हर बार लहरें आईं,
और हर बार
तू चुपचाप
मुझसे दूर चला गया।
कभी तू
मेरे हृदय की मूरत था,
अब तू
मेरी आत्मा के पीछे छुपा
एक मौन हो गया है।
तेरी ही यादों का वस्त्र ओढ़े
मैं खड़ा हूँ
इस एकांत की चौखट पर।
पीछे धूप है,
आगे कोई दर नहीं।
हे मेरे प्रीतम!
यदि तू सचमुच ईश्वर है,
तो मेरे आँसुओं का स्वाद
तू क्यों नहीं चखता?
तू क्यों नहीं सुनता
जब मेरी हर प्रार्थना
तेरे ही नाम की
एक सिसकी बन जाती है?
मुझमें कुछ बुझता है हर संध्या,
और कुछ जल उठता है हर भोर—
तेरा ही नाम,
तेरा ही शून्य,
तेरी ही प्रतीक्षा।
-इक़बाल सिंह “राशा“
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड