कापीराइट गजल
छोड़ कर गांव जब हम शहर आ गए
यह राज सारे शहर के नजर आ गए
उजाले हैं कम यहां ये अन्धेरे हैं बहुत
हर कदम पर अन्धेरे, नजर आ गए
आदमी की यहां पर कोई कीमत नहीं
हर किसी पे जुर्म जब, कहर ढ़ा गए
प्यार रिश्तों में अब ये झलकता नहीं
हम को रिश्ते यह झूठे नजर आ गए
कमी नहीं है कोई ये हादसों की यहां
तर लहू से जो दामन, नजर आ गए
शहर के लोग सब, जीते हैं खौफ में
हाथ दबंगों के जब, यूं कहर ढ़ा गए
पास रह कर भी सब अजनबी हैं यहां
राज अब ये सभी के, नजर आ गए
लौट जाएंगे हम अब, गांव को यादव
छोड़ कर गांव हम, क्यूं शहर आ गए
- लेखराम यादव
( मौलिक रचना )
सर्वाधिकार अधीन है