अब प्रेम नहीं, प्रभु चाहिए,
हर साँस में बस तू चाहिए।
ना छाँव, ना रेखा, ना रंग,
अब तेरी ख़ामोशी चाहिए।
मैं जलती रही बातों में,
सिर्फ़ राख बची रातों में।
अब न पुकार, न पहचान,
अब सिर्फ़ विलय की ध्वनि चाहिए
जो पास रहे, वो दूर हुए,
जो दूर थे, वही चूर हुए।
अब ना किसी का मोह बचे,
ना और कोई बाधा चाहिए।
काँधे झुके संबंधों से,
आँखें भरी संशयों से।
अब कोई बोझ न दो प्रभु,
अब तेरे चरणों की रज चाहिए।
कितने रूप जिए जीवन में,
कितनी बार बिखरी दर्पण में।
अब ना रूप, ना दर्पण चाहिए,
बस निर्मल एक तत्त्व चाहिए।
ना नाम रहे, ना काम रहे,
ना चाव रहे, ना थाम रहे।
अब ‘मैं’ भी ‘मैं’ न रहूँ प्रभु,
बस ‘तू ही तू’ हर ओर चाहिए।
अब प्रेम नहीं… प्रभु चाहिए।
ना मिलन, ना विरह — सिर्फ़ तू चाहिए।
इस बार जो जलूँ… तो पूरी तरह जलूँ,
और तेरे मौन में ख़ुद को खो दूँ…
जैसे गंगाजल समा जाए सागर में।
शारदा