छत टपकती थी, पर दिल बड़ा था,
बाप के सपनों में बेटी का घर बसा था।
हाथों की लकीरों में नहीं था सोना,
फिर भी वो बोला — "बिटिया को दूँगा सपना कोना।"
गिरवी रखा घर, बेंच दी ज़मीन,
कर्ज़ में डूबा बाप, आँखें नम, जबान हसीन।
बेटी की डोली उठे, यही बस आरज़ू थी,
पर हर रस्म में माँगते रहे कुछ और कीमत उसकी।
सुनकर बेटी काँपी, चुप रही कुछ पल,
फिर फूट पड़ी — “क्या यही है मेरा कल?”
"जिस जनम में बाप यूँ बिक जाए मेरी ख़ातिर,
उस जनम से बेहतर था — मिट्टी ही रह जाती क़ाबिल!"
"क्यों नहीं मार दिया मुझे जनम से पहले,
कम से कम तेरी आँखें तो न रोतीं यूँ अकेले।
तेरे पसीने की कीमत बनी बाज़ार का सौदा,
मुझे बेटी नहीं, जैसे बोझ माना हर कौना।"
"ना चूड़ियाँ चाहिए, ना भारी घूँघट,
बस चाहिए था तेरा कंधा, तेरा सच्चा स्नेहपथ।
पर आज तू झुका, तू टूटा, तू रोया,
मेरे नाम पर तूने खुद को खोया।"
शादी के शोर में छुप गया वो रुदन,
पिता की पीड़ा, बेटी का जनम।
बाजार में बिकते रिश्तों के बीच,
आज फिर हारी एक और बिटिया की सीख।