मैं अब राख नहीं हूँ,
मैं वह अंगारा हूँ
जो तुम्हारी आँखों में नहीं टिकता।
तुम कहते हो —
“अब तो सब ख़त्म हो गया होगा…”
पर नहीं,
तुम नहीं जानते,
कि कुछ औरतें
जलकर मरती नहीं —
वो अग्नि को आत्मा बना लेती हैं।
मैंने जब अपने ही हाथों
अपना अंत रचा,
तब पहली बार
मुझे आरंभ की गंध आई।
मैं टूटी नहीं थी,
मैंने खुद को खोद कर
भीतर से वह स्त्री निकाली थी
जो शून्य जैसी थी —
जिसे किसी स्पर्श की नहीं,
किसी प्रमाण की नहीं,
केवल मौन की ज़रूरत थी।
मेरा स्तन नहीं —
मेरा हृदय दूध देता है अब,
कविताओं को, क्रांतियों को,
उन बेटियों को
जो आँचल नहीं,
आँधियाँ माँगती हैं।
अब तुम मुझे
“समझदार” कह सकते हो,
“संयमी”, “महिला”, “मसीहा” —
पर मैं बस
अपनी चिता की लौ हूँ,
जिसमें तुम्हारी परिभाषाएँ
हर रात जलती हैं।
तुम मुझे राख समझो —
मैं राख होकर भी
तुम्हारे पूरे समाज को फूँक देने की आग रखती हूँ।
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अब मत कहना
कि मैं शांत हूँ —
मैं बस भीतर धधक रही हूँ
ताकि जब अगली स्त्री गिरे —
उसे अपनी ही चिता में
जन्म लेना आसान लगे।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




