अब खूबियाँ नही दिखती या अनदेखा कर रही।
पारखी नजर उसकी नये नये बहाने गढ रही।।
किसी का भ्रम जाल शायद काम करने लगा।
तन्हाई मजबूर कर रही जो नये पहाड़े पढ़ रही।।
हीरे की तरह तप कर बन हूँ अनमोल जब से।
जलन बढ़ गई तब से बेवजह की रार गढ रही।।
हर चमकती चीज़ भी सोना नही होती 'उपदेश'।
शातिर होकर उसका इल्ज़ाम मुझ पर मढ रही।।
- उपदेश कुमार शाक्यवार 'उपदेश'
गाजियाबाद