कापीराइट गजल
मैं चलता रहा सफर में, ये रात ढ़ल गई
यादों के संग सहर में, ये रात ढ़ल गई
ऐसे में तुम कहां हो, ये पूछा जो चांद से
वो चलता रहा सफर में, ये रात ढ़ल गई
अब न नींद थी कहीं, न करार था कहीं
तन्हा थे हम सफर में, ये रात ढ़ल गई
गुप अंधेरी रात में, भी हम जागते रहे
थे इश्क के असर में, ये रात ढ़ल गई
मोहब्बत की ओढ़ चादर, सो गए थे हम
इतने हंसी सफर में, ये रात ढ़ल गई
जब छुप गए सितारे, और भोर हो गई
वो आए नहीं नजर में, ये रात ढ़ल गई
यादव ने उसको ढ़ूंढ़ा, न जाने कहां कहां
वो खो गए अधर में, ये रात ढ़ल गई
- लेखराम यादव
( मौलिक रचना )
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