अब मैं जियूँगी ऐसे —
कि पिंजरे को साँप सूँघ जाए,
और मेरे नाम का पता पूछने पर
स्वयं ब्रह्मा भी कहें — “क्षमा करें, अपडेट नहीं है!”
जिसने ताले लगाए थे,
उन्हीं की चाबियाँ
अब मैंने बेच दी हैं…
कबाड़ी बोला —
“बहुत पुराने हैं, परतों से घुट रहे हैं ये रिश्ते!”
अब मेरा दीया —
तेल नहीं माँगता,
हवा से भिड़ता है!
और जब बुझाया जाता है —
तो जलकर कहता है,
“आग को बुझाने चले थे? जलाओगे ख़ुद को एक दिन!”
अब मैं व्रत नहीं रखती —
ना शब्दों का,
ना सपनों का,
ना सहनशीलता का।
अब जो बोलती हूँ —
वो सच की तरह कड़वा नहीं,
मिर्ची की तरह तीखा है।
मेरी हँसी अब झूला नहीं,
झटका है।
और मेरी चुप्पी अब शालीनता नहीं,
रणनीति है।
जो कहता है —
“औरत को मर्यादा में रहना चाहिए”,
उसे मैं प्रेम से देखती हूँ,
फिर हल्के से पूछती हूँ —
“तेरे हिस्से की शर्म वापस ले लूँ क्या?”
अब मैं जियूँगी ऐसे —
कि मेरी परछाईं भी
सलाम ठोके —
और कहे —
“मालिक, आग है तू!”