खत्म होती मानवीय संवेदनाएं
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कभी कहा जाता था कि “मनुष्य अपने संवेदनाओं से महान है।” लेकिन आज लगता है कि यह वाक्य केवल किताबों तक ही सिमटकर रह गया है। जिसका आज के वास्तविक समाज से कोई लेना देना नहीं है आज आधुनिक समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ और भौतिकवाद का प्रभाव इतना गहरा हो चुका है कि इंसान अब केवल अपने लिए जीना और सोचना सीख गया है। यह प्रवृत्ति न केवल शर्मनाक है, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे के लिए घातक भी।
संवेदनाओं का लोप — एक खतरनाक संकेत
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सड़क हादसों में घायल व्यक्ति तड़पते रहते हैं और लोग सहायता करने के बजाय मोबाइल से वीडियो बनाते हैं। रोडरेज में मामूली झगड़े हत्या में बदल जाते हैं। कभी किसी महिला को भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डाला जाता है, तो कभी पेट्रोल डालकर जला दिया जाता है—और सैकड़ों लोग मूकदर्शक बने रहते हैं। यह दृश्य केवल अपराध की नहीं, बल्कि संवेदनाओं की मृत्यु की तस्वीर पेश करते हैं।
मानवता को शर्मसार करने वाली मानसिकता
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विडंबना यह है कि ‘सभ्य समाज’ कहलाने वाला समुदाय इन घटनाओं का केवल दर्शक बन जाता है। वह इंसान, जिसकी पहचान सहानुभूति और करुणा से होती थी, अब क्रूरता और उदासीनता का पर्याय बनता जा रहा है। यदि यह स्थिति बनी रही तो मनुष्य और पशु में अंतर करना कठिन हो जाएगा।
विकास का सही मापदंड
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प्रश्न यह है कि ऐसी प्रगति और विकास का क्या मूल्य, जो नैतिकता और मानवता को समाप्त कर दे? भव्य इमारतें, तकनीकी उन्नति और आर्थिक समृद्धि तभी सार्थक हैं जब उनके पीछे संवेदनशील हृदय और जाग्रत विवेक भी हो।
समाज की असली उन्नति तभी संभव है जब हम केवल अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी जीना सीखें। कठिन समय में मदद के लिए आगे बढ़ना, अनजान के दर्द को महसूस करना, और अपने भीतर करुणा को जीवित रखना ही असली बहादुरी है।
यदि हम मानवीय संवेदनाओं को मरने देंगे, तो अंततः हम अपनी ही मानवता खो देंगे।
“मानवीय संवेदनाएं ही समाज को सभ्य बनाती हैं; इनके बिना विकास केवल एक खोखला खोल है।”
डाॅ फ़ौज़िया नसीम शाद