मैं खुद को विकलांग समझूं कि मैं पंगु नहीं हूं, मेरी बदलती चाहत इतनी रहती है कि खुद की मजबूरी से कोई काम करना पड़ता है, और ये मजबूरी इतनी बढ़ जाती है कि आप नया काम नहीं कर पाते हो, हमारे देश में गुणों की बात होती है, संस्कारों की बात होती है और समझ की समझ होने की बात की जाती है पर ऐसा है नहीं, लोग स्वार्थी बनने में जरा भी परहेज़ नहीं करते हैं, नयेपन का दिग्दर्शन भी देखने को मिलता है लेकिन जब क्रिया अपने पथ पर हो तो बदलता कुछ नहीं है, बैंक की नौकरियां, वायु सम्बंधित कार्य पेशा, होटल मैनेजमेंट और नेतागिरी के काम कुछ विशेष वर्गों तक सीमित हो जाते हैं, एक सामान्य व्यक्ति बसों में धक्के खाता, 1 महीने के राशन के लिए लड़ता है और बैंक खाता भी खाली रहता है और पढ़ाई इसलिए करता है कि नौकरी मिल जाए, वहां वो अपनी मनमर्जी से नहीं गया है और ना ही उसका पेशा है और यहीं पर बहुत सारे लोगों का झुंड टीचिंग लाइफ को अपनाता है, और वास्तव में वो कोई अध्यापक नहीं है केवल एक ढंग की तनख्वाह आ जाए, ऐसे अनेक एग्जाम के पीछे धक्के खाता है, पर परवाह के लिए भी कोई नहीं है, अब वो ना नई पढ़ाई कर पाता है कोई नई कोई तैयारी नहीं,ना जाने केवल कुछ गुणी लोगों और ऐतिहासिक लोगों का जीवन बनाने या बताने के लिए इस देश में करोड़ों लोगों जीवन हीनता में बर्बाद हो गया । और इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जो भी नया जीवन आया था उसको हीन करके इस देश ने भेजा है।।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




