ये जो फ़िक्र है उनको मेरी,
ये हक़ीक़त है या महज़ दिखावा है।
जितनी फ़िक्र है उन्हें मुझ अजनबी की,
उतनी तो कोई किसी अपने की भी नहीं करता है।
बार - बार मुझसे मेरी ख़ैरियत पूछते हैं,
क्या इतना लगाव इन्हें मुझसे हो गया है।
समेटते रहते हैं मुझसे जुड़े हर वाक़िआ को,
क्या इतना प्यार इन्हें मुझसे हो गया है।
कभी परिंदों के बीच में,
तो कभी पलाश के दरख़्तो पर ढूॅंढते हैं।
वो मुझे अपनी कलम से,
कागज़ पर लिखते और उकेरते हैं।
गुनगुनाते रहते हैं ग़ज़ल बना मुझे,
और मुझ पर कही अपनी ही ग़ज़ल पर
आफ़रीन कहते हैं।
झरोखे में बैठ दूर पहाड़ों पर,
तसव्वुर में खुद को मेरे साथ देखते हैं।
~रीना कुमारी प्रजापत