याद कहाँ ख़तम होती है,
इसकी इक एल्बम होती है l
पर्वत, नदियां, झरने, पानी,
सब कुदरत की दी होती है l
अपने अंदर जब काई हो,
फिसलन कहाँ ख़तम होती है l
इश्क़ किमाम जब घुल जाए,
रंग सिर चढ़ बोला करती है l
किनारे हाथ सहारा पाकर,
पतंग हवा में उड़ जाती है l
तारों बीच जो चंदा निकले,
रात ख़तम होने लगती है l
दादी नाना के साथ में रहकर,
सीरत सब की गढ़ जाती है l
घर की दीवारें हैं सब सुनती,
मुँह से कहाँ कहा करती है l
झूम झूम गाती हैं हवाएँ,
साँसें कहाँ बटा करती है l
जब सीने में हूक उठी हो,
कोई दवा कहाँ लगती है l
अच्छे-बुरे को है बतलाती,
ज़मीर साथ खड़ी रहती है l
हिम पर्वत है दर्द "विजय",
सीने में पिघला करती है l
विजय प्रकाश श्रीवास्तव (c)