निर्मल मन रूपी दर्पण पर ,
मोह रूपी तितली आ बैठी ,
ख़्वाब सजाए जितने हमने ,
लगती वो सबकी परछाई।
घोल रही रंगो को मन पर ,
लगता मानो पंख पसारे ,
छूकर दर्पण उतर रही है ,
अंतर भींगे नेह थे सारे ।
बैठी देख रही है तन —मन ,
किसने दिया तुझे ठिकाना ,
कुसुम छोड़ दर्पण पर आना ,
मन तितली बन चाहे मुस्काना ।
-सिम्मी नाथ