नदियों के किनारे बड़े हो गए हम।
जो मिला उसे खाकर सो गए हम।।
धरती माता की गोद में साँस लेते।
जहाँ सूरज डूबा उसी के हो गए हम।।
विकास के नाम से जंगल मिटाते।
ताप के प्रकोप से पीड़ित हो गए हम।।
जल जंगल जमीन हमारे सदियों से।
सताये जाने पर व्यथित हो गए हम।।
इंसान खुद इंसान का दुश्मन बना है।
व्यर्थ में 'उपदेश' दरिन्दे हो गए हम।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद