सरकारी नौकरी — जोड़ी नहीं, जोख़िम देती,
क़लम नहीं — हथकड़ी सी लगती क़सम देती।
ये कुर्सी नहीं, कोई कांव-कांव करती हवेली है,
जहाँ हर फ़ाइल में घुटती किसी आत्मा की है।
जहाँ आदेश का अर्थ होता है —
“सोच मत, चल पड़ — चाहे भीतर से टूट जा।”
और
“ईमानदारी अगर पहन ली तो तैयार हो जा —
कब्र में अपने नाम की तख़्ती खुद लगाने को।”
सरकारी नौकरी — सुकून नहीं, शर्तें देती है,
हर साँस को दस्तावेज़ बना, निगाहें गिनती है।
यहाँ दिन का अर्थ है “ड्यूटी”,
रात का मतलब है “बचे हुए मेल”।
यहाँ प्यार टेबल की दराज में दबा रहता है,
और परिवार — छुट्टी की फ़ाइल में लटका रहता है।
हर रिश्ता, हर सपना,
विभागीय अनुमति के हस्ताक्षर पर टिका होता है —
जैसे जीवन नहीं,
कोई “प्रोसीजरल मैन्युअल” जी रहे हों हम।
सरकारी नौकरी — जोड़ी नहीं, जोख़िम देती,
तनख्वाह नहीं, आत्मा के कटौती की पर्ची देती।
औरत हो, तो और भी —
“घर भी देखो, दफ़्तर भी” की
दोहरे खूँटे पर टंगी बकरी बन जाती है।
कोई नहीं पूछता —
कि सुबह पाँच बजे की रोटियाँ
किस सपने को अधूरा छोड़ कर बनीं।
कोई नहीं जानता —
कि महीने के हर दूसरे दिन
किस रिश्ते को फ़ोन पर टाल दिया गया।
सरकारी नौकरी — सम्मान नहीं, समर्पण माँगती है,
मर्यादा नहीं, मौन की मूर्ति बनाती है।
मैंने देखा है —
सच बोलने की कोशिश में
कई अफ़सरों को खामोशी की जेल मिलती है।
कि एक सिग्नेचर ग़लत,
तो बरसों की निष्ठा पे दाग लगता है।
सरकारी नौकरी — जोड़ी नहीं, जोख़िम देती,
सिर पर कलगी नहीं, पीठ पर जनता की अपेक्षाओं का बोझ देती।
ये नौकरी तुम्हें जोड़ती नहीं,
बल्कि रोज़ थोड़ा-थोड़ा तोड़ती है।
हर प्रमोशन के पीछे किसी त्याग की चीख़ होती है,
हर ट्रांसफर के साथ एक घर, एक रिश्ता, एक पहचान छूटती है।
ये नौकरी — तपस्या नहीं, तपाव है।
ध्यान नहीं, धधकती धूप में निर्वसन है।
ये नौकरी — युद्ध है
जहाँ हर दिन, अपने ही आदर्शों से लड़ना पड़ता है।
तो अगली बार जब कोई कहे —
“सरकारी नौकरी लग गई! भाग्यशाली हो!”
तो बस मुस्कुरा देना,
क्योंकि उन्हें नहीं पता —
ये भाग्य नहीं, बलिदान है।
ये स्वयं से छूटने की शुरुआत है।