बैठे चौखट पर दो छायाएँ,
काल-सिन्धु की थकी विभायें।
नयनों में बुझते दीप कहें,
अतीत गंध अब भी महकाए।
झुर्रीली साँझ निशब्द खड़ी,
स्पर्शविहीन स्मृतियाँ चंचल,
व्यर्थ यौवन की उन गलियों में,
शेष रहा केवल मृदु हलचल।
पग-पग पर मेले छूट गए,
स्वप्नों की वीणा मौन हुई,
किन्तु हृदय की निर्झर गाथा,
आज भी उर्मिल, द्रवित रही।
धूप-सने वे दिन चले गए,
जहाँ पुलकित प्राणों की बात,
अब शेष रही यह निस्तब्धता,
अब मौन रहा यह गूँज सौगात।