झिंगुर की झन-झुन, झन-झुन।
मानो
दूर बजी हो कहीं-
थिरकते पैरों की पायल।
टर्र-टर्र, टर्र-टर्र
टर्राना मेढकों का
मानो,
तबले पर थाप देकर
रगड़ा हो तलहत्थी किसी ने
सरररर्राट् !
और
गिर पड़े हो कई हाथ
एक साथ ढोलकों पर
सामंजस्य स्थापित करने के लिए
लय और ताल का।
शायद
इन्द्र की सभा सजने वाली है
धरती पर आज।
मेघों का घुमड़ना, दौड़ना
जैसे-
होड़ मची हो उनमें
तीर्थयात्रा पर जाने की।
आकाश की नीली छतरी को
रौंदते चले जा रहे हैं,
किसी पागल भीड़ की तरह,
एक-दूसरे से गूंथते-टकराते।
रह-रह कर
चमक उठती है बिजली
छायाकार के कैमरे की
फ्लैश लाईट की तरह।
शायद,
इन्द्रदेव का सब्र भी
अब टूटने लगा है।
लगता है,
हरियाली से मुग्ध होकर
खिंच लेना चाहते हैं
बार-बार तस्वीर
वह भी
सजी सँवरी प्रकृति का।
बादलों की गड़गड़ाहट
फेंक जाती है
ध्वनि धनुष्टंकार की-
गड़-गड़, गड़-गड़।
मानो,
पूरी ताकत से खिंचकर
छोड़ दी हो
प्रत्यंचा किसी ने धनुष की।
भरी सभा में खुद को
विजयी घोषित करने के लिए।
ऐसी प्राकृतिक लीलाओं से
आज वातावरण हो रहा-
सरस, संगीतमय,
सुमधुर और पावन।
सच,
बरसता आया रिमझिम-रिमझिम
हरियाली लेकर जब यह सावन।
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