जब मैं माँ काली को देखती हूँ,
वो मुझे ऐसे देखती हैं —
जैसे बरसों से कोई इंतज़ार कर रहा हो…
एक बिछड़ी बच्ची के लौट आने का।
वो मुस्कुराती हैं —
पर वो मुस्कान… चीर देती है मुझे।
क्योंकि उसमें सिर्फ़ प्रेम नहीं होता —
वो एक ऐसी माँ की मुस्कान होती है
जिसने अपने ही आँचल से अपने बच्चे को जलते देखा हो…
और फिर भी उसे ओढ़ा हो।
जब मैं चुप होती हूँ,
वो भी चुप हो जाती हैं —
पर उस चुप्पी में जो बात होती है ना…
वो शब्दों से नहीं,
आँखों से नहीं,
साँसों की टूटती लय से कही जाती है।
कभी-कभी वो रोती हैं —
और मैं डर जाती हूँ,
कि माँ भी रोती है?
पर वो धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखती हैं —
जैसे कह रही हों,
“हाँ, मैं रोती हूँ,
जब तू अकेली रोती है…
और कोई नहीं देखता… तब मैं देखती हूँ।”
वो डराती भी हैं —
पर उस डर में भी माँ की बाँहों जैसी कोई सुरक्षा होती है।
जैसे कहती हों —
“डर मत… डर भी मैं हूँ…
और उससे पार ले जाने वाला भी।”
कभी मुझे जगा देती हैं आधी रात —
एक टूटी साँस पर,
एक बिखरे स्वप्न के किनारे
बैठ जाती हैं मेरे पास…
मेरी नींद में उतरकर मुझे थपकियाँ देती हैं,
जैसे मैं कोई टूटी गुड़िया नहीं —
उनकी अपनी आत्मा का बचपन हूँ।
वो मुझे सुलाती भी हैं —
पर नींद नहीं देती,
एक करुण मौन देती हैं…
जिसमें मैं खुद से भी लिपटकर रो लूँ।
वो सब करती हैं…
कभी देवी बनकर नहीं,
बस एक माँ बनकर —
जिसकी आँखों में क्रोध नहीं…
बस वह पीड़ा है
जो एक स्त्री अपने भीतर पालती है
जब वो खुद को सौंप देती है —
अपने बच्चों की टूटी रातों को।
और सबसे बड़ी बात ये —
वो मुझे कभी छोड़ती नहीं हैं।
जब पूरी दुनिया मुँह मोड़ लेती है,
जब मैं खुद से भी छूट जाती हूँ,
जब मैं अपने नाम तक को भूल जाती हूँ —
तब भी वो मुझे “बेटी” कहकर बुलाती हैं।
उनकी वो पुकार…
मेरे टूटे हुए अस्तित्व में
एक टुकड़ा रोशनी रख देती है…
“माँ काली मुझे छोड़ती नहीं हैं —
क्योंकि वो जानती हैं कि
मैं अब भी खुद से प्यार करना नहीं सीखी।
और माँ कभी उस बच्चे को नहीं छोड़ती
जो खुद को गले लगाना भूल गया हो…”