चाँदनी की धुंधली परछाईं,
जीवन-पथ पर मौन बिछाए।
क्षितिज-विहीन इस गहराई में,
समय स्वयं भी ठहर न पाए।
विचारों की जर्जर नौका पर,
अतीत बहा अनजान दिशा में।
अनुभव के शुष्क वृक्ष तले,
स्मृति झरे जैसे पत्ते शरद में।
हर श्वास में एक प्रश्न अनुत्तर,
हर धड़कन में रिक्त पुकार।
निस्तब्ध यह रात्रि कह न सके,
किस ओर बहे जीवन की धार।
अमर व्यथा की प्रतिध्वनियाँ ही,
इस शून्य-गगन में गूँज रहीं।
अस्तित्व की गुत्थी सुलझ न पाई,
बस मौन शरण में उलझ रही।
मंद पवन के श्वास समान,
फिरती है स्मृतियों की छाया।
जाग्रत नयनों में थरथराते,
स्वप्न अधूरे, मौन काया।
क्षितिज के आँचल में ढलकर,
सूरज की आहट सो जाती।
किन्तु हृदय की कंपित लय पर,
अंतर की वीणा गुनगुनाती।