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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

रौनक-ए- महफिलें थी बड़ी-ताज मोहम्मद

पूछते पुछते पहुँचा उस बाजार में जहाँ रौनक-ए- महफिलें थी बड़ी |
बिकनें के लिये हर दुकान पर वहाँ कई ज़िन्दगीयाँ थी खड़ी ||1||

हर सम्त ही शऱाब-ओ-सबाब की महकी-महकी शामें थी सजी |
कोई भी शर्म कोई भी हया उस हरम में ना किसी नजर में थी दिखी ||2||

बाजार-ए-हुस्न की हर दुकान पर गिरने के लिये कयामत थी बड़ी |
मैनें भी देखा दिवान-ए-खास में खरीदारों की लगी एक भीड थी बड़ी ||3||

हर हाथ में ही जाम था हर नजर में ही थी मयखाना-ए-मस्ती |
ऐसा लगा मेरी भी मझधार में फसीं कश्ती साहिल पर आ थी लगी ||4||

मालिक-ए-सामाँ को सुकून आया जब उनकी नजर मुझ पर थी पड़ी |
घूमते-घूमते मेरी भी नजर इक नूरे आफताब पर जा थी टिकी ||5||

हर आँख थी इन्तजार में उस महफिल-ए-मुन्तजर की बड़ी |
शिरकत-ए-बज्म से उसके हर आशिके जाँ पर बिजली सी थी गिरी ||6||

शोखियाँ उस आब-ओ-हया के चेहरे की उफ कातिल थी बड़ी |
आगोश में उसके जानें को मेरी जुस्तजू मेरें दिल पर ही थी अड़ी ||7||

उस कमरे की हर दिवार पर इक अजब सी थी नमी |
मेरे लिये उसके उल्फत-ए-मोहब्बत में ना जानें कैसी थी कमी ||8||

छूनें पर उसको जानें कैसी उसके दिल में इक आह थी उठी |
देखा जो मैनें गौर से तो उसकी आंखों में कुछ अश्को की थी नमी ||9||

दिल को तो अब मेरें उस पर बीती हर बात सुननें को थी पड़ी |
मुझको पता चला इक गरीब की इज्ज़त का जो आके यहाँ थी बिकी ||10||

ना जानें कितनें हाथों से कितनी ही बार उसकी आबरू थी लुटी |
रूह उसकी अन्दर से छलनी-छलनी हर बार ही थी हुई ||11||

मरना भी अगर चाहे तो वह अपनी मर्जी से मर सकती थी नहीं |
क्योंकि पहरे की हर निगाह होती उस पर थी हर घड़ी ||12||

उसकी हर आह में दुआ बद दुआ थी कि आ जाये कयामत की घड़ी |
क्योंकि ज़िन्दगी उसकी हर वक़्त मौत से भी बद तर थी बनी ||13||

मायूस थी बड़ी वह शायद कुछ कहना मुझसे चाह थी रही |
थी लबों तक तो बात उसके पर हिम्मत कहने की ना थी बची ||14||

कम्बख्त रात को भी ना जानें गुजरनें की इतनी जल्दी क्यू् थी पड़ी |
सब जाननें को मैं बेताब था उस पर बीती ज़िन्दगी की हर घड़ी ||15||

फेहरिस्त सब गुनहगारों की इस बाजार में लम्बी थी बड़ी |
मैं भी तो उसमें शामिल हो गया था उस वक़्त की घड़ी ||16||

कैसे बनाऊ मै उसको फिर से वह पहले वाली मासूम सी लड़की |
काश मेरे भी पास होती वह परियों वाली जादू की छड़ी ||17||

ताज मोहम्मद
लखनऊ




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (4)

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फ़िज़ा said

वाह वाह क्या बात है ज़नाब!! बहुत खूब !

ताज मोहम्मद replied

बहुत बहुत शुक्रिया आपका।

फ़िज़ा said

मार्मिकता से परिपूर्ण भावों से भरी रुदन परिस्थिति उस पर आपका व्यक्त करने का अंदाज़

ताज मोहम्मद replied

फिज़ा जी आप नही लिखती है क्या। आपकी समीक्षा बहुत ही दिल के करीब होती है। आपको पढ़ने का मन करता है। पर आपका लिखा मुझे मिलता नहीं है। हो सके तो इस पर गौर फरमाएं। शुक्रिया।

रमेश चंद्र said

🙁😭😭

ताज मोहम्मद replied

शुक्रिया भाई जी।

फ़िज़ा said

जनाब आपका बहुत बहुत शुक्रिया मेरी प्रतिक्रियाएं आप तक पहुंच पा रही हैं जानकर ख़ुशी हुयी, मेने अभी तक कुछ खास नहीं लिखा है लेकिन जो भी है आप मेरी प्रोफाइल में जाकर पढ़ सकते हैं https://www.likhantu.com/user/noor-e-fiza

ताज मोहम्मद replied

शुक्रिया।

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