कितने ख़त लिखे मैंने तेरे नाम पर—
हर फूल, हर पत्ते, और बहती हवा पर,
ओ मेरे प्रभु-प्रीतम,
तेरे उत्तर की एक बूँद भी ना बरसी इस सूखी आत्मा पर।
मैंने सरसों के पीले खेतों में
तेरी आहटें बोई थीं—
हर पीली पंखुड़ी से तेरे चरणों की छाया माँगी,
पर ऋतुएँ आईं… और लौट गईं…
तेरी ख़ामोशी ओस बनकर घुलती रही मेरी पलकों में।
गुलमोहर की शाखें अब भी लाल हैं,
पर तू नहीं आया—
और अमलतास की झरती सुनहरी चुप्पियाँ
अब मेरे ही सवाल दोहराती हैं।
सावन की पहली बूँद गिरी जब हथेली पर,
मैंने समझा—
अब तू बोलेगा,
पर बादलों ने भी तेरे संदेश की भाषा नहीं जानी।
मैंने नदियों से पूछा,
“क्या वो कभी इस पार आया?”
उन्होंने सिर झुका लिया—
जैसे वो भी तेरी प्रतीक्षा में बहते-बहते थक गई हों।
कितने ख़त लिखे तेरे नाम पर,
आसमान की नीली चादर पर—
चाँद के माथे पर तेरा नाम उकेरा,
धरती की धड़कनों में तुझे पुकारा,
हर साँझ, हर भोर, बस आँखों में तेरा रूप सवारा।
पर न तू आया,
न तेरा कोई जवाब आया।
अब तो मेरी साँसें भी
प्रार्थना बनकर तेरे चरणों में लिपटी हैं—
हे मेरे प्रभु!
क्या मेरी आत्मा की यह पुकार
तेरे द्वार तक कभी पहुँचेगी?
-इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड