👉 बह्र - बहर-मुतकारिब मुसम्मन सालिम
👉 वज़्न - 122 122 122 122
👉 अरकान - फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
पड़ा है परिंदे क्यूँ क़ैद-ए-कफ़स में
है करना तुझे आसमाँ अपने बस में
यकीं ख़ुद पे थोड़ा सा करके तो देखो
क्यूँ रहते हो तुम यूँ सदा पेश-ओ-पस में
हुई आज रिश्तों की हालत पुलों सी
दरकने हैं लगते बरस दो बरस में
जिधर भी मैं देखूँ दिखे तेरा चेहरा
मेरा दिल ज़िगर अब नहीं मेरे बस में
जो सच्चा हो दिखता है आँखों में उसकी
जो इंसाँ हो झूठा वो खाता है कस्में
कि पानी से आख़िर ये फड़केगी कैसे
जरूरी है होना ज़रा खूँ भी नस में
जो होना है वो 'शाद' होकर रहेगा
बदलना है रब का लिखा किसके बस में
©विवेक'शाद'